सर्वशक्तिमान कौन है? कौन है जो सभी से परे है? कौन है जिसका ना कोई जन्म है और ना ही अंत? सुख-दुख और सभी गुणों से ऊपर कौन है? कौन है जिसे कोई नहीं बदल सकता, पर वह सबको बदलने का दम रखता है?
मानव आदिकाल से अपने से ज्यादा ताकतवर और शक्तिमान व्यक्ति की कल्पना करता रहा है। उसी शक्तिमान को उसने भगवान का दर्जा दिया। मानव समझ नहीं सका कि आखिर कैसे जिस प्रकृति में वह रह रहा है, वह कैसे बनी है। इसलिए हर उस चीज़ को जिसे वो समझ नहीं पाता है, उसे एक सर्वशक्तिमान से जोड़ देता है। सबकुछ जो समझ से परे है, वह जब भगवान का है तो फिर क्या हमारा है? क्या जो हमें समझ में आता है, वह हमारा है? तो आखिर मानव कितनी चीजों को समझता है और क्या वह खुद को समझता है, अगर वह अपने को नहीं समझता है, तो वह अपने आप को भगवान पर क्यों नहीं छोड़ देता? अगर वह अपने को समझता है, तो वह क्या समझता है? मानव जीवन की विचित्र पहेली है; वह क्या समझता है और क्या नहीं, यह समझ भी उसे नहीं आ पाती है।
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मृत्युलोक में मानव और सर्वशक्तिमान
आधुनिक विज्ञान के अनुसार, मानव 60 लाख साल से इस पृथ्वी पर रह रहा है। इस बीच, मानवों की कई प्रजातियाँ जन्म लेकर विलुप्त हो गईं और अब केवल एक ही मानव प्रजाति का पूरी पृथ्वी पर एकक्षत्र अधिकार है। 8 अरब से ज्यादा मानव, जो कि सेपियंस प्रजाति के हैं, भूमि, समुद्र और आकाश में अपने आप को स्थापित कर चुके हैं। वे विज्ञान में तरक्की कर चुके हैं और पृथ्वी की हर दूसरी प्रजाति से हजारों गुना आगे जा चुके हैं।
अब महत्वाकांक्षा इतनी है कि पृथ्वी पर पूरी तरह कब्जा करने के बाद अब दृष्टि सौरमंडल के दूसरे ग्रहों पर है। मानव ये भी हासिल कर लेगा, पिछले 500 सालों से चल रही विज्ञान की प्रगति ने इस समय मानव को अंतरिक्ष की ओर ज्यादा जोड़ दिया है। इसी तरह प्रति वर्ष मानव अगर 3 प्रतिशत उर्जा का दोहन ज्यादा करता रहा तो आने वाले 200 वर्षों में वह एक उन्नत सभ्यता बन जायेगा।
वैज्ञानिक कार्डशेव इसे टाइप 1 सभ्यता कहते हैं जो इतनी उन्नत होती है कि वह अपने ग्रह के बराबर की उर्जा को हर सेकेंड यूज कर पाये। इस असीमित उर्जा से वह अपने नये उपकरण (स्पेसशिप) बनाकर कई ग्रहों पर मानव को भेजने की योजना करेगा। पर क्या इस तरह से वह सर्वशक्तिमान को चुनौती दे सकता है?
मनुष्य का वैज्ञानिक गुण
उन्नत सभ्यता बनना मनुष्य का एक वैज्ञानिक गुण है, विज्ञान से वह उन्नत और विकसित सभ्यता तो बन सकता है, पर क्या वह इससे अपने आप में सयंम रख सकता है? क्या सर्वशक्तिमान की ओर विज्ञान की गति से जाने में कोई हानि तो नही है? क्या संयम के बिना उन्नत होने से मानव अपने सर्वनाश की ओर तो नहीं चला जायेगा? आखिर मानव की दिशा क्या है, क्या मृत्युलोक में पैदा हुआ मनुष्य सर्वशक्तिमान की ओर जा सकता है?
टाइप 1 होने पर भी मानव मृत्यु से परे नहीं है, जिस भी ग्रह पर वह जायेगा वह किसी ना किसी दिन खत्म होगा ही। जब ब्रह्मांड का नियम ही मृत्यु और जन्म है तो ब्रह्माड में रहने वाला उससे कैसे परे हो सकता है? पर मानव का अंहकार उसे इस सच्चाई को मानने से रोक देता है।
विज्ञान की प्रगति पर उसे भरोषा है और वह सोचता है कि से 12 हजार वर्ष पूर्व पूरी मानव सभ्यता खेती करके जब अपना पेट पालना सीख गई थी, और 500 वर्ष पहले उसने विज्ञान में वो खोज लिया जो हमारे पूर्वजों को भी ज्ञात नहीं था तो उसे अब कौन रोक सकता है।
आगे और 200 सालो में वह उन्नत होगा और फिर टाइप 1 के बाद वह 1 हजार साल बाद टाइप 2 सभ्यता बनेगा और अपने तारे (सूर्य) जितनी उर्जा को नियत्रिंत करना सीख लेगा। ऐसे ही आकाशगंगा और फिर आकाशगंगाओं के कई समुह पर भी एक दिन मानव का राज होगा। वह इतना उन्नत होगा कि छोटे – मोटे इंसान और ग्रह बनाये जा सकें और एक कत्रिम माया का संसार खड़ा किया जाये जिसमें उसके द्वारा बनाये गये जीव फसे रहें और उसे ही सर्वशक्तिमान समझे पर उसे कभी देख ना पायें।
स्वंय सर्वशक्तिमान
इस तरह से भी अपने को सर्वशक्तिमान का दर्जा दिया जा सकता है, पर ब्रह्मांड के सनातन सत्य को बदला नहीं जा सकता है। मृत्यु और जन्म पक्का है, सोचिए सर्वशक्तिमान बना मानव भी आपस में लड़कर खत्म हो जाये तो फिर उसके इस विज्ञान और ज्ञान का क्या महत्व रखा जाये। बस अहंकार पूर्ति हुई और लड़कर के मर गये। तो क्या कोई तरीका है सर्वशक्तिमान से मिलने का, अगर विज्ञान का रास्ता नहीं है या कठिन है तो फिर कौन सा रास्त है जिससे इस गुणातीत शक्ति को महसूस किया जा सकता है?
मृत्युलोक में जन्मा मानव केवल ब्रह्मांड को ही अपार शक्ति मानता है। इस ब्रह्मांड में जितनी भी उर्जा है उसी उर्जा से ही पदार्थ बना है और फिर इसी उर्जा से ही हम भी बने हैं। हम शक्ति के अंश है तो फिर अहंकार द्वारा या विज्ञान की भयानक तरक्की से तो इस शक्ति की ओर तो नहीं जाया जा सकता है? तो, आखिर क्या करें…….
अध्यात्म से ही सर्वशक्तिमान की ओर
पृथ्वी पर इसका दूसरा उत्तर अध्यात्म है, अध्यात्म के बल से इस सर्वशक्तिमान को समझा जा सकता है और इसे पाया भी जा सकता है। ये तो तथ्य है कि हम इसी सत्ता के बल से ही बने हैं, हर अणु और परमाणु जो हमारे शरीर में है वो इसी शक्ति के द्वारा बना है।
भौतिक विज्ञान भी जानता है कि उर्जा यानि ऐनेर्जी से मैटर बनता है और इसी मैटर से उर्जा भी बनती है। दोनो परस्पर संबंधी हैं। तो जब हम इसी सर्वशक्तिमान के एक छोटे से अंश हैं तो इसे पाने के लिए हमें इसी से सहायता मांगनी चाहिए। हम अपनी बुद्धि, विवेक और विज्ञान से इससे ना तो टक्कर ले सकते हैं और ना ही इसे समझ सकते हैं, समुचे ब्रह्मांड पर भी हमारा अधिकार हो जाये तो भी हम इसके सामने एक चीटी के समान हैं।
तो हमें इसी की शरण चले जाना चाहिए, मेरी बुद्धि और मेरा तर्क तो यही कहता है कि जिसे हम किसी भी तरह नहीं जान सकते हैं, उसके सामने हमें खुद ही शरणागति हो जाना चाहिए।
शरणागति
सर्वशक्तिमान हममें व्याप्त है और वह इस बात को जरूर समझता है, वह हसता है कि मानव इतने प्रयत्न करके भी थकहार के आज भी वहीं है जहां वह पहले था, उसने सिर्फ मेरी माया को थोड़ा ही समझा है, पर मुझ मायापति की ये माया तो एक क्षण के समान ही है। मुझे खुद ही करुणा करके इसे अपने परिचय से अवगत करा देना चाहिए, अर्जुन को भी मैंने इसी तरह अपने ज्ञान और रूप की सूक्ष्म झलक दी थी तो इसे भी देना चाहिए। पर इससे पहले इसे अध्यात्म में ही इस योग्य होना होगा कि ये मुझे कुछ समझ सके। इस कार्य में मैं इस जीव की मदद करूँगा। अहंकार के त्याग से ही मेरे पास आया जा सकता है। शरणागति के अलाबा कोई मार्ग नहीं है। ज्ञान से मुझे समझा जा सकता है पर मुझमें समाया नहीं जा सकता है।
पर शरणागति या कहें तो अध्यात्म का मार्ग भी बहुत दुर्लभ है, हम ये भी कह सकते हैं कि ये विज्ञान की तरक्की से ज्यादा दुलर्भ है। प्रकृति के गुण और माया के द्वारा मानव हर बार कोशिश करता है और विफल हो जाता है। एक गलती और पूरा अध्यात्म में अब तक अर्जित ज्ञान और भक्ति सब खत्म। अहंकार, काम, मोह और क्रोध के द्वारा हम वापिस उसी स्टेज पर आ जाते हैं जहां से आरंभ किया था। इसलिए अध्यात्म का मार्ग जितना सहज दिखाई देता है वह बहुत ही कठिन है।
“मैं” कौन हूँ?
सर्वशक्तिमान को पाने के लिए सिर्फ “मैं” को जानना ही जरूरी है। अगर एक अणु अपने को पहचान कर बदलना शूरू करदे तो पूरी प्रकृति और ब्रह्मांड की सरंचना ही बदल जाये, पर अणु में ये गुण कैसे आयेगा ये उसे भी नहीं पता है। वह नियमों से बंधा हुआ है, कुछ नियम हम समझ पायें है और कुछ नियम क्वांटम लेवल के हैं जो हमारी समझ से परे हैं। पर जो भी हैं नियम ही हैं। अणु की तरह मानव भी अगर “मैं” को सही समझ ले तो वह इस माया के चक्र से निकलकर सीधा सर्वशक्तिमान की ओर जा पायेगा। पर इस “मैं” को समझपाना ही सबसे कठिन कार्य है। कैसे होगा मैं भी नहीं जानता हूँ, क्योंकि इसकी कोई सीमा नहीं है। साधारण तो यही है कि मैं खुद सर्वशक्तिमान का अंश हूँ, इसके आगे मैं कुछ नहीं जानता हूँ।