आज कल वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष में मुख्य रूप से दो चीजों के ऊपर खास दिलचस्पी आ रही है। पहला तो है ब्लैक होल और दूसरा है नए-नए ग्रह (methods of detecting exoplanet)। यूं तो पृथ्वी के ऊपर इंसानों को रहते हुए लगभग 6 करोड़ साल से ज्यादा हो चुके हैं, परंतु इतने लंबे समय के अंदर इंसानों की प्रजाति विकसित होने के साथ ही साथ हमारा घर पृथ्वी दिन व दिन रहने अयोग्य हो रहा है। कहने का तात्पर्य ये हैं कि, हम अपने खुद के स्वार्थ के लिए इस हरे-भरे ग्रह के प्राकृतिक संरचना को बिगाड़ रहें हैं।
आज के इस कम्प्यूटर युग में जहां विज्ञान अपने जलवे हर एक क्षेत्र में दिखा रही हैं, वहीं दूसरी तरफ इंसान इसी विज्ञान के जरिये ही अपना नुकसान किए जा रहा है। मेँ शायद यहाँ बताते हुए थक जाऊंगा कि, आखिर किन-किन तरीकों से इंसान पृथ्वी के नैसर्गिक गुणों के साथ खिलवाड़ कर रहा हैं। वैसे मित्रों! शायद यही वजह हैं कि, आज हमारे वैज्ञानिक पृथ्वी जैसे नए-नए ग्रहों को (methods of detecting exoplanet) ढूँढने के लिए जिज्ञासु या यूं कहें कि मजबूर हैं। आज के इस लेख में मेँ आप लोगों को पृथ्वी से दूर मौजूद ग्रहों को खोजने के तरीकों के बारे में बताऊंगा, जिसके बारे में आप लोगों ने शायद ही कहीं पढ़ा होगा।
खैर आगे बढ्ने से पहले यह बता दूँ कि, यह लेख मूलतः 5 तरीकों में बंटा हैं जो कि एक-दूसरे से काफी अलग-अलग भी हैं। इसलिए अगर आप हर एक तरीकों के बारे में जानना चाहते हैं तो, हर एक तरीके को आपको अच्छे से पढ़ना पड़ेगा। तो, चलिये अब बिना किसी देरी किए लेख को शुरू करते हैं।
एक्सोप्लेनेट्स क्या हैं? – What Is Exoplanet In Hindi? :-
चलिये, एक्सोप्लेनेट्स (methods of detecting exoplanet) को ढूँढने के तरीकों के बारे में बात करने से पहले, एक नजर इसकी परिभाषा में ऊपर डाल लेते हैं ताकि आपको बाद में आगे एक्सोप्लेनेट्स क्या हैं और इससे जुड़ी मूलभूत बातों के बारे में पता चल पाए।
तो, “एक्सोप्लेनेट्स एक प्रकार से पृथ्वी की तरह ही ग्रह होते हैं जो की, हमारे सौर-मंडल से बाहर मौजूद होते हैं”। इनके मौजूदगी की आधार पर इन्हें बहिर्ग्रह भी कहा जाता हैं। सबसे पहले एक्सोप्लेनेट्स की खोज, साल 1917 में की गई थी परंतु आवश्यक तथ्यों के कमी के कारण इस खोज को नकार दिया गया था। वैसे औपचारिक तौर पर पहले एक्सोप्लेनेट की खोज साल 1992 में की गई थी। गौरतलब बात यहाँ ये हैं कि, इस एक्सोप्लेनेट को खोजने कि प्रक्रिया साल 1988 में ही शुरू हो गया था।
दिलचस्प बात यह हैं कि, अब तक लगभग 4,268 एक्सोप्लेनेट्स को खोजे जा चुके हैं और लगातार वैज्ञानिक इन पर और भी ज्यादा शोध करके पृथ्वी जैसे हूबहू दिखने वाले ग्रहों के तलाश में भी जुटे हुए हैं। कुल खोजे गए एक्सोप्लेनेट्स से लगभग 3,115 एक्सोप्लेनेट्स के अपने-अपने सौर-मंडल हैं। एक्सोप्लेनेट्स की खोज वैज्ञानिकों को पर-ग्रही सभ्यतायों के अति निकट कराता हैं। वैज्ञानिकों का मानना हैं कि, एक्सोप्लेनेट्स कि खोज से ही वो लोग पृथ्वी से दूर ऐसे-ऐसे ग्रहों को ढूंढ सकते हैं, जहां पर भविष्य में कभी इंसान अपना घर बसा सकता हैं।
ग्रहों को ढूँढने के 5 बेहतरीन तरीके – 5 Methods Of Detecting Exoplanet :-
मित्रों! लेख के इस भाग में हम लोग नए ग्रहों को ढूँढने के 5 सबसे अच्छे व सटीक तरीकों (methods of detecting exoplanet) के बारे में जानेंगे। इसलिए लेख के इस भाग को जरा गौर से पढ़िएगा। मेँ आगे एक-एक करके 5 बेहतरीन तरीकों को आप लोगों को बताने जा रहा हूँ।
1. The Radial Velocity Method :-
रेडियल वेलोसिटी मेथड एक्सोप्लैनेट्स को ढूँढने का सबसे सटीक व सही तरीका हैं। इस तरीके को साल 2009 से “Doppler Spectroscopy” के जरिये भारी मात्रा में वैज्ञानिकों के द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा हैं। इस तरीके में किसी खगोलीय पिंड के संवेग को मूल आधार माना जाता हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड में मौजूद जीतने भी सितारे हैं उनमें से ज़्यादातर गतिशील हैं।
कहने का तात्पर्य ये हैं कि, वह सब खगोलीय पिंड अपने निकट मौजूद दूसरे खगोलीय पिंड से आकर्षित हो कर गतिशील अवस्था में रहते हैं। इसलिए आपने देखा होगा कि ज़्यादातर ग्रह या सितारे एक निर्धारित गोलाकार या अंडाकृति पथ पर चलते हैं। वैसे बता दूँ कि, इसका मूल वजह गुरुत्वाकर्षण बल हैं जो की दोनों ही निकटवर्ती खगोलीय पिंडों को एक दूसरे के और आकर्षित करता हैं।
वैसे इसी वजह से अगर कोई दूर बैठा आदमी सितारों की इस टेढ़े-मेढ़े पथ को देखता हैं, तो उन सितारों से आने वाली प्रकाश के किरणों में कई बदलाव देख सकता हैं। कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि, रेडियल वेलोसिटी के कारण उस सितारे से आने वाली प्रकाश के किरणों के स्पेक्ट्रम में काफी बदलाव देखी जा सकती हैं तथा इसके कलर सिग्नेचर (Color Signature) में भी भिन्नता मिलता हैं।
मित्रों! अगर आप लोगों को याद हैं तो, मैंने कुछ दिनों पहले ही ब्लू शिफ्ट और रेड शिफ्ट के बारे में आप लोगों को बताया था। जी हाँ! इसके ऊपर मैंने एक स्वतंत्र लेख आप लोगों दे चुका हूँ तो अगर किसी को इन शिफ्ट्स के बारे में अधिक जानकारी चाहिए तो उस लेख को अवश्य ही एक बार जरूर पढ़ सकते हैं।
ये तरीका कैसे काम करता हैं? :-
तो, अगर आपने जब ब्लू शिफ्ट और रेड शिफ्ट के बारे में पढ़ लिया हैं तो पता होगा कि; जब कोई भी चीज़ अंतरिक्ष में देखने वाले से दुर जा रही होती हैं तो वो रेड शिफ्ट में चली जाती हैं और अगर कोई चीज़ देखने वाले कि और बढ़ती हैं तो वो ब्लू शिफ्ट के अंतर्गत आ जाती हैं। इसे ही प्रकाश के किरणों के स्पेक्ट्रम में बदलाव कहते हैं। बाद में स्पेक्ट्रम में हुई बदलाव को देख कर इसे तथ्यों में परिवर्तित करके दूर मौजूद एक्सोप्लेनेट्स को खोजा जाता हैं।
आज तक इस तरीके के जरिये हजारों एक्सोप्लेनेट्स को ढूंढा जा चुका हैं और कहने में कोई गलती नहीं होगी कि, एक्सोप्लेनेट्स को ढूँढने के क्षेत्र में इस तरीका का कोई प्रतिद्वंद्वी ही नहीं हैं। पृथ्वी पर मौजूद टेलिस्कोप के जरिये इस तरीके को एक्सोप्लेंट्स खोजने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता हैं। मूल रूप से इस तरीके को बहुत ही छोटे-छोटे टेलिस्कोप के जरिये भी इस्तेमाल किया जा सकता हैं और इसके लिए कोई स्पेस-टेलिस्कोप कि जरूरत भी नहीं पड़ती हैं।
2. Transit Photometry Method :-
मित्रों! एक्सोप्लेनेट्स को (methods of detecting exoplanet) ढूँढने का ये तरीका वाकई में काफी गज़ब का हैं। जब भी कोई ग्रह किसी सितारे के पास से हो कर गुजरता हैं तो वह उस सितारे से कुछ मात्रा में प्रकाश को अपने अंदर सोख लेने के साथ ही साथ उससे दूर भी हो जाता हैं। वैसे सरल भाषा में कहूँ तो, पृथ्वी और सितारे के बीच से हो कर गुजरने वाले ग्रहों के प्रक्रिया को ही “Transit” (ट्रांसिट) कहते हैं।
हालांकि यहाँ ध्यान में रखने वाली बात ये भी हैं कि, अगर किसी सितारे कि प्रकाश के तीव्रता में नियमित समय के व्यवधान के अंदर धीमापन दिखाई पड़ रहा हैं; तो हमें यह मान कर चलना होगा कि उस सितारे के निकट कोई एक एक्सोप्लेनेट मौजूद हैं। ये एक्सोप्लेनेट उस सितारे के प्रकाश को अपने अंदर सोख लेने के कारण सितारे के प्रकाश के तीव्रता में धीमापन दिखाई पडता हैं। मित्रों! इसके अलावा आप लोगों को और एक बात पर नजर डालनी चाहिए कि, जब भी कोई एक्सोप्लेनेट किसी सितारे के पास हैं तब वह आंशिक रूप से उस सितारे से आने वाली प्रकाश के किरणों को अवरोध करता हैं। जिससे हमें ये पता चलता हैं कि, वहाँ पर कुछ न कुछ मौजूद हैं जैसे कि एक एक्सोप्लेनेट।
वैसे ये तरीका सीधे तौर पर दोनों ही सितारे और ग्रह के आकार पर निर्भर करता हैं। अगर ग्रह के मुक़ाबले सितारा बड़ा होगा तो, ज्यादा प्रकाश के किरणें हम तक पहुँचेंगी, परंतु अगर सितारे के मुक़ाबले ग्रह का आकार बड़ा हैं तो हम तक प्रकाश कि किरणें बहुत कम ही पहुँचेंगी। प्रकाश के स्पेक्ट्रम और फोटोमेट्री के जरिये सितारे से जुड़ी कई सारे विशेष तथ्यों के बारे में पता लगाया जा सकता हैं। मेँ इसके बारे में लेख में आगे बात करूंगा।
ये तरीका कैसे काम करता हैं? :-
इस तरीके कि कार्य प्रणाली के बारे में अगर मेँ बात करूँ तो, आपको पता चल जाएगा कि हकीकत में ये तरीका समझने में कितना आसान हैं। खैर जब भी कोई एक्सोप्लेनेट किसी सितारे का परिक्रमण करता हैं, तो वह एक निर्धारित मात्रा में सितारे कि प्रकाश के किरणों को बाधित करता हैं। ये मुल रूप से उस अवस्था में ज्यादा होता हैं, जब ग्रह सितारे के मुक़ाबले आकार में छोटा हो। हालांकि सितारे से आकार में बड़े ग्रह को ढूँढने में मुश्किल होता हैं, क्योंकि वह पूर्ण रूप से सितारे को अवरोध कर देता हैं। खैर इसी तरीके से एक्सोप्लेनेट्स को ढूंढा जाता हैं।
वैसे इस तरीके के जरिये हम लोग एक्सोप्लेनेट के आकार और परिक्रमण के पथ को सटीक तौर पर देख सकते हैं। इस तरीके के लिए सबसे ज्यादा सेप्स-टेलिस्कोप कि मदद लिया जाता हैं, जिससे अंतरिक्ष में मौजूद एक्सोप्लेनेट्स के ऊपर लगतार महीनों तक भी नजर रखा जा सकता हैं। प्लेनेट के परिधि से लेकर इसके भौतिक गुणों तक इस तरीके से आसानी से पता लगाया जा सकता हैं। बता दूँ कि, ज़्यादातर इस तरीके से खोजे जाने वाले ग्रहों में वातावरण को पाया गया हैं।
3.The Microlensing Method :-
मैंने ऊपर ग्रहों को खोजने (methods of detecting exoplanet) के लिए जिन तरीकों के बारे में आप लोगों को बताया हैं, वह साधारण रूप से अपेक्षाकृत निकटवर्ती ग्रहों को खोजने के इस्तेमाल में आता हैं। इसलिए वैज्ञानिक उन तरीकों से पृथ्वी के पास मौजूद ग्रहों को खोजने का प्रयास करते हैं। परंतु मित्रों! अब मेँ यहाँ पर जिस तरीके कि बात करने जा रहा हूँ; वो मुख्य रूप से पृथ्वी से बहुत ही दूर मौजूद ग्रहों को ढूँढने के कार्य में आता हैं।
मेँ यहाँ पर बात कर रहा हूँ, माइक्रोलेंसिंग कि। इस तरीके के जरिये वैज्ञानिक पृथ्वी से बहुत ही दूर मौजूद ग्रहों को ढूँढने के काम में लाते हैं। वैसे अन्य तरीकों के जरिये हम लोग मात्र 100 प्रकाश वर्ष दूरी तक मौजूद एक्सोप्लेनेट्स को ही देख सकते हैं, परंतु गज़ब कि बात तो ये हैं कि माइक्रोलेंसिंग के जरिये हम लोग हमारे आकाशगंगा के केंद्र में मौजूद एक्सोप्लेनेट्स को भी आसानी से देख सकते हैं। मित्रों! हमारे आकाशगंगा का केंद्र हमसे कई हजार प्रकाश वर्ष दूरी पर मौजूद हैं। तो, आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि; वास्तविक रूप से ये तरीका कितना असरदार हैं। वैसे आपको इस तरीके के बारे में क्या लगता हैं? जरूर ही बताइएगा।
ये तरीका कैसे काम करता हैं? :-
अंतरिक्ष में सितारे अपने गुरुत्वाकर्षण बल के जरिये अपने चारों तरफ मौजूद स्पेस को काफी ज्यादा प्रभावित करते हैं। कुछ वैज्ञानिक ये भी कहते हैं कि, ये स्पेस टाइम को मोडने में भी सक्षम होते हैं। तो, जब भी कोई एक सितारा दूसरे सितारे के सामने आता हैं तो वो अपने चारों तरफ मौजूद स्पेस को अपने हिसाब से मोड देता हैं, जिसके कारण वह क्षेत्र एक तरह से लेंस का काम करने लगता हैं। इससे उस सितारे का चमक और भी बढ़ जाता हैं।
तो, मजे की बात तो ये हैं कि; जब भी कोई सितारा पहले से ही माइक्रोलेंसिंग कर रहा होता हैं और उसके पास एक एक्सोप्लेनेट भी मौजूद रहता हैं तो वो प्लानेट माइक्रोलेंसिंग के प्रक्रिया को और भी ज्यादा तीव्र कर देता हैं। जिसके कारण वो सितारा और भी ज्यादा चमकदार हो जाता हैं। इससे वैज्ञानिकों को ये पता लग जाता हैं कि, सितारे के पास एक एक्सोप्लेनेट मौजूद हैं।
मित्रों! यह तरीका का आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांतों पर आधारित हैं, तो अगर आप चाहें तो इसके बारे में अधिक जानकारी मेरे सापेक्षता के सिद्धांत के ऊपर लिखे गए लेख में
4. The Astronomy Method :-
एस्ट्रोमेट्री का मूल अर्थ हैं, अंतरिक्ष में मौजूद सितारों का सही तरीके से सटीक जगह का अनुमान लगाना। जब वैज्ञानिक एस्ट्रोमेट्री के जरिये ग्रहों को ढूंढते हैं तो, वो लोग उसके निकटवर्ती सितारे से उस ग्रह तक लगातार दायें-बाएं के दिशा में देख कर ग्रह के सटीक जगह का पता लगाते हैं। इससे उस एक्सोप्लेनेट का सही जगह पता लगाया जा सकता हैं। हालांकि! इस प्रक्रिया में वैज्ञानिक एक “Wobble” को आधार मान कर सितारे के ऊपर भी पैनी नजर रखते हैं। अगर सितारे के पेरिओडिक शिफ्ट में कोई बदलाव आता हैं तो, इस बात को संभावनाएं बढ़ जाती हैं कि; उस सितारे के चारों तरफ कोई एक ग्रह निश्चित रूप से परिक्रमा कर रहा हैं।
ये तरीका कैसे काम करता हैं? :-
एक्सोप्लेनेट (methods of detecting exoplanet) को ढूँढने के लिए इस तरीके में ज्यादा कुछ नहीं करना पड़ता हैं। इस तरीके में जिस भी सितारे के पास कोई एक ग्रह घूम रहा होता हैं तो उस सितारे के घूमने कि गति उसके निकटवर्ती सितारों के घूमने के गति से थोड़ा अलग रहता हैं। जो कि इस बात को दर्शाता हैं कि, उस सितारे के पास अपना एक ग्रह हैं।
इस तरीके के जरिये बहुत पुराने से समय से एक्सोप्लेनेट्स को ढूँढने का प्रयास किया जा रहा हैं, हालांकि इसके सटी कता को लेकर अभी भी वैज्ञानिकों के अंदर आशंकाएं अभी भी हैं। मित्रों! प्राचीन तरीका होने के कारण ये अंतरिक्ष में मौजूद बहुत प्रकार के सितारों के ऊपर काम करता हैं। इसलिए ज़्यादातर यह ग्रह के सटीक द्रव्य मान को भी दर्शाता हैं। इसके अलावा ये तरीका दूरवर्ती ग्रहों के परिक्रमण पथ को बहुत ही अच्छे तरीके से विश्लेषण करने में हमारी मदद करता हैं।
इस तरीके के जरिये कुछ वैज्ञानिक पृथ्वी जैसे ग्रहों को ढूँढने के प्रयास में हैं। देखते हैं आगे इस तरीके से क्या पृथ्वी जैसे ग्रहों को वैज्ञानिक ढूँढने में सक्षम हो पाते या नहीं।
5. The Direct Imaging Method :-
एक्सोप्लेनेट्स (methods of detecting exoplanet) के ढूँढने के तरीकों में यह तरीका सबसे जटिल हैं। इसके जरिये एक्सोप्लेनेट्स को लगभग बहुत ही मुश्किल के साथ ढूंढा जाता हैं। हालांकि इस तरीके से जरिये बहुत ही कम चमकीले और क्षुद्र ग्रहों को हम ढूंढ सकते हैं जो कि अंतरिक्ष में चमकीले आकाशगंगाओं और सितारों के मध्य खो से जाते हैं। इसको विशेष प्रकार से टेलिस्कोप के जरिये इस्तेमाल किया जाता हैं। साल 2008 में इस तकनीक के जरिये 3 एक्सोप्लेनेट्स को खोजा गया था और ये अपने आप में ही एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
ये तरीका कैसे काम करता हैं? :-
मित्रों! एक्सोप्लेनेट ढूँढने के प्रक्रिया में भले ही ये थोड़ा मुश्किल हैं, परंतु जब कोई ग्रह दिखाई पड़ जाता हैं तो उस ग्रह को हम बहुत ही सरलता के साथ टेलिस्कोप के जरिये देख सकते हैं। इस तरीके से हम सितारों के पास मौजूद ग्रहों को सीधे तरीके से देख सकते हैं, जो कि इस तरीके कि सबसे बड़ी खासियत भी हैं।
फीका तथा धुंधला दिखाई पड़ने वाले ग्रहों के बारे में ये तरीका बहुत ही ज्यादा असरदार हैं। इसकी वजह से हम उन एक्सोप्लेनेट्स को देख सकते हैं जिनके बहुत बड़े-बड़े परिक्रमा करने का पथ हैं। इसके साथ ही साथ हम उस ग्रहों को भी देख सकते हैं जो कि किसी भी सितारे के पास मौजूद भी नहीं हैं। इस तरीके में वैज्ञानिक खोजे गए ग्रह के द्रव्य मान(mass) को जानने में सक्षम होते हैं।
ये तरीका उन ग्रहों के ऊपर भी काम करता हैं जो कि अपने सितारे से काफी दूर रह कर परिक्रमा करते हैं। इससे वो ग्रह अपने सितारे के चमक से न छुप कर हमें साफ-साफ दिखाई देता हैं। वैसे इस तरीके को वैज्ञानिक अन्य तरीकों के साथ मिलाकर भी एक्सोप्लेनेट्स कि खोज करते हैं।
Sources :- www.planetary.org, www.exoplanet.edu.