हिन्दू धर्म में पितरों के बारे में सभी ने सुना ही है, माना जाता है कि जिनकी मृत्यु हो जाती है वह अपने बाद वाली पीढ़ियों के लिए पितर बन जाते हैं। अश्विन कृष्ण पक्ष की प्रथमा से लेकर अमावश्या तक के समय को अर्थात एक पक्ष को पितृ पक्ष कहते है, जिसमे लोग अपने पितृगणों को प्रसन्न करने के लिए शास्त्रों में बताए गये नियमानुसार धर्म स्थानों पर जाकर श्राद्घ, तर्पण, दान आदि करते हैं।
जो लोग धर्म स्थानो पर नहीं जा पाते वह अपने घर पर ही रहकर श्राद्ध, तर्पण, पिण्ड दान एवं ब्राह्मण भोजन सहित कई अन्य उपचारों से अपने पितरों को प्रसन्न करने का प्रयास करते है।
अब प्रश्न यह है कि पितृगण कौन हैं? और यह अस्तित्व में कैसे आए? ये दोनों प्रश्न सामान्य तौर पर हर व्यक्ति के जहन में आते है।
गरूड़ पुराण के अनुसार कोई मनुष्य तन धारि जीव जब अपना वह पंचतत्व के शरीर का त्याग करता है तब मृत्यु के पश्चात मृतक व्यक्ति की आत्मा प्रेत रूप में यमलोक की यात्रा शुरू करती है। इस यात्रा के समय उस मृतक की आत्मा को उसके संतान द्वारा प्रदान किये गये पिण्डों से प्रेत योनि वाले उस आत्मा को बल मिलता है।
यमलोक में पहुंचने पर उस प्रेत आत्मा को अपने कर्म के अनुसार प्रेत योनी में ही रहना पड़ता है अथवा अन्य योनी प्रदान कर दी जाती है। कुछ व्यक्ति अपने सद कर्मों से पुण्य अर्जित करके देव लोक के वासी हो जाते है एवं पितृ लोक में स्थान प्राप्त करते हैं यहां अपने योग्य शरीर मिलने तक ऐसी आत्माएं निवास करती हैं।
शास्त्रों में बताया गया है कि चंद्र लोक से ऊपर एक अन्य लोक है जिसे पितर लोक कहते है। शास्त्रों में पितरों को देवताओं के समान पूजनीय बताया गया है। पितरों के दो रूप बताये गये हैं- पहला देव पितर और दूसरा मनुष्य पितर। देव पितर का काम न्याय करना है, देव पितर मनुष्य एवं अन्य जीवों के कर्मो के अनुसार उनका न्याय करते हैं।..
आज ही अपने फोन पर प्राप्त करें – संक्षिप्त गरूड़ पुराण – सरल और सटीक
श्रीमद्भागवतगीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि वह पितरों में अर्यमा नामक पितर हैं। इस प्रकार अपने वचनों से श्री कृष्ण यह स्पष्ट करना चाह रहे है कि पितर भी वही हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों की पूजा करने से भगवान विष्णु की ही पूजा होती है।
श्री विष्णु पुराण के अनुसार सृष्टि के आदि में जब उन्होंने रचना प्रारम्भ की तब ब्रह्मा जी के पृष्ठ भाग अर्थात पीठ से पितरों की उत्पत्ति हुई। पितरों के उत्पन्न होने के बाद ब्रह्मा जी ने उस शरीर का त्याग कर दिया जिससे पितर उत्पन्न हुए थे। पितरों को जन्म देने वाला ब्रह्माजी का वह शरीर संध्या बन गया, इसलिए पितर संध्या के समय अधिक शक्तिशाली होते हैं।
साभार – हिन्दूग्यानी