सनसनाता ये शहर , भागती ये दुनिया ,
परिंदों का अकेलापन , अपनों से दूरियाँ ,
बढती ज़रूरतें , इंसानियत की कीमतें ,
बनती ही जा रही बस मज़हबी इमारतें
आग भरा गुस्सा जलाता ही जा रहा ,
संवेदना तो बस एक शब्द ही रह गया ,
आज आज़माता हर घड़ी इंसान को इंसान ही ,
और वो आजमाना भी आज सिर्फ स्वार्थ ही रह गया
छोड़ खुद पर भरोसा लोग नकारात्मक हो रहे ,
और है जिनको उम्मीदें वो आंदोलन कर रहे,
आतंक का भी एक ज़हर युवाओं में घोला जा रहा ,
और करने वाले इस पर भी राजनीति कर रहे
पैसों की है दौड़ बस हर तरफ हर गली ,
इंसानियत भी आज खून के राह चल पड़ी ,
नही था ऐसा इंसान , जब उस खुदा ने गढ़ा ,
इंसान ही जिम्मेदार है जो इन राहों पर बढ़ा