Kya Shudra Brahmin Ban Sakta Hai?- हिन्दू धर्म में मनुष्यों को चार वर्णो में बांटा गया है, जो कि ब्रह्माण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। पर आज इस बात पर बहुत बहस होती है कि जो चार वर्णों को बाटां गया है क्या वो जन्म के आधार पर बटे हैं या कर्म के आधार पर।
इसी रहस्य पर आज एक सावल सामने आया है जिसे कई लोगो नें पूछा है जिसका उत्तर हम आपको देने की कोशिश करेंगे…
ऋग्वेद के ३य मंडल के ऋषि अर्थात महाऋषि विश्वामित्र था महाराजा गादी का पुत्र, राजा वर्ण व्यवस्था में एक क्षत्रिय हैं। किंतु ऋषि विश्वामित्र एक ब्राह्मण हैं। तो यह तो इसे साबित कर देते हैं कि एक क्षत्रिय, ब्राह्मण हो सकते हैं।
महाऋषि वाल्मिकी खुद एक ब्राह्मण थे, किन्तु एक शुद्र के पुत्र थे। ऋषि परशुराम एक क्षत्रिय हैं किंतु ब्राह्मण कुल से हैं।
श्रीमद्भागवत गीता में ही भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं –
“चतुर्वर्ण मया सृष्टम गुण कर्मण बिभागस।”
अर्थात, भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को बोल रहे हैं कि, “मैंने लोगों के कर्म के गुण अनुसार चार वर्ण बनाये हैं।
कर्म गुण अनुसार ब्रह्मज्ञानी, वैज्ञानिकों एवं शिक्षकों को बिना किसी स्त्री पुरूष विचार के ब्राह्मण कहा जायेगा। वर्ण विभाजन विधि –
१. ब्राह्मण: श्रीमद्भागवत गीता १८/४२ –
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥
अर्थात, अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।
२. क्षत्रिय: श्रीमद्भागवत गीता १८/४३ –
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥
अर्थात, शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।
३. वैश्य और शुद्र: श्रीमद्भागवत गीता १८/४४ –
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥
अर्थात, खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप कार्य ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म हैं।
और श्रीमद्भागवत गीता १८/४५ में यह कहते हैं –
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु॥
अर्थात, अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन।
शास्त्र यह भी कहते हैं –
जन्म जयते शुद्र:
संस्कार: द्विज उच्चते
वेद: पथनात भवेत विप्र
ब्रह्म ज्ञानेती इति ब्राह्मण।
जन्म से सभी शूद्र हैं, संस्कार से द्विज, ज्ञान से विप्र और ब्रह्म ज्ञान से ही ब्राह्मण होता हैं।
तो क्षेत्र में आपका दादा, परदादा या पिता क्या करते हैं थे इसका कोई महत्व नही हैं। एक ब्राह्मण का पुत्र एक शूद्र भी हो सकता है और एक शूद्र का पुत्र ब्राह्मण। कुछ लोग इसमे विरोध करेंगे पर इन सब में एक भी वाणी मेरी नही हैं।
सोचिये – वेद पथ बिना पूजा, और ज्ञान के बिना विप्र कैसे होंगे? क्या सैनिको को बिना सिखाये युद्ध में भेज दें? क्या करे? बाप युद्ध करना जानते हैं तो पुत्र क्या पैदायश ही युद्ध लड़ना शुरू करेंगे?
नहीं ना? योग्यता से विचार करे। अयोग्य लोग को स्थान देने में क्या महत्त्व हैं?
स्वयं विचार करें।
बि. द्र. – मैं बांग्लादेश से हूँ , और हिन्द ठीक से नहीं जानता हूँ । सिर्फ आपको सहायता करने की चेष्टा कर रहा हूँ । गलती मार्जना करे, और भुल हो तो टिप्पणी में बताये। मैं अवश्य ठीक कर दूंगा। मैं और अच्छे से लिखने की चेष्टा करूँगा।
उत्तर का साभार – पल्लव सेन (क्योरा)
मछली के बच्चे को तैरना कोई नहीं सिखाता है।वर्ण जाति नहीं वास्तविक रूप में स्वभाव है जिसका संबंध और प्रभाव हमारे वंश से है जिसको अनुवांशिक लक्षण भी कहते हैं।