शोधकर्ताओं ने एक अविश्वसनीय खोज की है। पृथ्वी का बाहरी वातावरण 630,000 किलोमीटर (391 000 मील) तक फैला हुआ है, जो कि हमारे ग्रह के व्यास से लगभग 50 गुना अधिक है। जाहिर है, आप वहां सांस तो नहीं ले सकते क्योंकि पृथ्वी की सतह से 10 किलोमीटर ऊपर वायुमंडल बहुत अलग बन जाता है। पर इस शोध से वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष यात्रा और अंतरिक्ष वेधशालाओं के लिए महत्वपूर्ण डाटा मिलेगा।
Journal of Geophysical Research: Space Physics, में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार वैज्ञानिकों ने इस खोज का श्रेय ESA/NASA Solar and Heliospheric Observatory (SOHO) को दिया।
रूस के स्पेस रिसर्च इंस्टीट्यूट के प्रमुख लेखक इगोर बालीकिन ने एक बयान में कहा, “चंद्रमा पृथ्वी के वातावरण में उड़ता है ।” “जब तक हम SOHO अंतरिक्ष यान द्वारा दो दशक पहले किए गए अवलोकनों को नहीं हटाते, तब तक हमें इसकी जानकारी नहीं थी।”
डेटा से पता चला है कि पृथ्वी का एक्सोस्फीयर एक महत्वपूर्ण दूरी के लिए इंटरप्लेनेटरी स्पेस (दो ग्रहों के बीच की जगह) की तुलना में थोड़ा घना है। चंद्रमा की दूरी पर, जो औसतन 384,000 किलोमीटर (239,000 मील) दूर है, यहां केवल 0.2 परमाणु प्रति घन सेंटीमीटर हैं। मतलब एक सेंटीमीटर में केवल 0.2 परमाणु ही यहां मिलते हैं। पर पृथ्वी से 60,000 किलोमीटर (37,000 मील) की दूरी पर,ये अभी भी 70 सेंटीमीटर परमाणु प्रति घन सेंटीमीटर है। हालांकि इतना कम घनत्व (डेंसिटी) होने के बाद भी इतनी दूर पृथ्वी के वातावरण को देखा जा सकता है, यहां पर हाईड्रोजन सूर्य की पराबैंगनी किरणों से टकराकर जियोकोरोना (geocorona ) उत्पन्न करता है जो आज भी शोध का विषय है।
SOHO द्वारा उपयोग किए जाने वाले उपकरण के सह-लेखक और पूर्व प्रमुख अन्वेषक जीन-लुप बर्टाक्स ने समझाया कि Geocorona हर समय से ही चांद की सतह पर होता रहता है, यहां जितने भी यात्री चांद की सतह पर जब भी थे उन सबने इसे जरूर महसूस किया होगा।
वैज्ञानिक मानते हैं कि इस खोज से उन्हें exoplanet यानि परदेशी ग्रहों को भी खोजने में काफी मदद मिलेगी। जिस तरह पृथ्वी पर पराबैंगनी किरणों से यह चमक बनती है चांद तक फैलती है, तो वैज्ञानिक मानते हैं कि इस सिग्नेचर से वह पता लगा सकते हैं कि इस ग्रह पर पानी है या नहीं, वैज्ञानिक फिर इसी सिग्नेचर का इस्तेमाल करके दूर के ग्रहों पर भी जल वास्प यानि पानी का पता लगा पायेंगे।