जो अपनी शाखा के वेद को स्मृति द्वारा बचाकर रखे और उसकी व्यवहारिक विधि का ज्ञाता हो उसे ब्राह्मण कहते हैं | ऐसे ब्राह्मण अब बहुत कम हैं जो वेद का पाठ भी नियमित रूप से करते हैं | अब वेद का लाभ भी नहीं जानते, उसमें सन्देह करते हैं।
अपनी शाखा के बाद अन्य वेद पढ़ने वाले को द्विवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी कहते थे | यज्ञ में चतुर्वेदी ही ब्रह्मा बन सकता था। अब वास्तविक चतुर्वेदी कोई नहीं है, केवल नाम के लिए हैं | रामायण आदि का पाठ करने वाले पाठक हुए | मिश्रित ब्राह्मणोचित कर्म वाले ‘मिश्र’ हैं।
प्राचीन काल में वेद पढ़ाने वाले शिक्षक को उपाध्याय कहते थे ; (उप) पास नीचे बैठे शिष्य को उसका (स्वशाखा का वेद) अध्याय पढ़ाने वाला |
अपभ्रंश में उसका उपाज्झा > ओझा और झा हो गया, आज से लगभग एक सहस्र वर्ष पूर्व।
काशी विद्वानों के प्रभाव में रही, अतः वहां और आसपास ‘उपाध्याय’ बना रहा |
बंगाल में इन्हीं शिक्षकों ने आर्य संस्कृति का प्रसार किया और वंदोपाध्याय, चट्टोपाध्याय, गंगोपाध्याय एवं मुखोपाध्याय कहलाये जो वहां आज भी प्रवासी ब्राह्मण माने जाते हैं | उधर अपभ्रंश में झा के बदले जी हो गया, जैसे कि वंदोपाध्याय से बनर्जी | अतः शिक्षक या बुजुर्ग को जी कहने की परिपाटी चली जो हिन्दी क्षेत्र ने भी सीख ली |
बंगाल के स्थानीय ब्राह्मण हैं सान्याल , और ईद जैसे त्यौहारों के इफ्तार में मुसलमानों का जूठा खाने वाले जाति-बहिष्कृत ब्राह्मण बंगाल में “पिराली” कहलाते हैं जिनमें सबसे प्रसिद्ध (कुख्यात) है टैगोर |
प्राचीन काल में देश भर में सारे ब्राह्मण शर्मन आस्पद (surname) धारण करते थे जिससे शर्मा बना, आज भी कर्मकाण्डों में सभी ब्राह्मणों को उपाध्याय, झा, मिश्र, आदि हटाकर “अमुक शर्मन” कहना पड़ता है | क्षत्रिय वर्मन कहलाते थे |
जिन ब्राह्मणों ने वेद त्यागकर भूमि ग्रहण (हरण) किया और कृषक या जमीन्दार बने वे भूमिहार कहलाये, यहीं से ब्राह्मणों में एकरूपता टूटी और ब्राह्मणों के भीतर उपजातियां आरम्भ हुई | मध्ययुग में अन्य ब्राह्मणों में भी भूमि वाली बीमारी फैली |
किन्तु 1793 में स्थायी बन्दोबस्त के बाद सभी ब्राह्मण भूमि रखने के लिए विवश हो गए | उस समय तक भारतीय गाँवों में पंचायतें भूमि की मिलकियत रखती थी (जो इतिहासकार नहीं पढ़ाते), किन्तु कॉर्नवॉलिस ने सारी जमीनें छीनकर एक नया जमींदार वर्ग सर्जित किया — यहीं से ग्रामीण भारत की बर्बादी आरम्भ हुई और ब्राह्मणों का व्यापक पैमाने पर पतन हुआ — वे पत्नी को पास रखने और कृषक बनने के लिए विवश कर दिए गए, पंचायत के भरोसे जीना और मुफ्त में गाँव को पढ़ाना कठिन हो गया | फिर भी ग्रामीणों के सहयोग के कारण ब्राह्मणों के बिना फीस वाले गुरुकुल चलते रहे रहे जिन्हें बलपूर्वक मैकॉले ने बन्द कराया और संसार के एकमात्र शिक्षित देश को एक ही पीढी में लगभग निरक्षर बना दिया |
अब ब्राह्मणों की कोई भी शाखा वैदिक ब्राह्मण (श्रोत्रिय) नहीं हैं , जो स्वयं को श्रोत्रिय कहते हैं वे भी कृषि या नौकरी से जुड़े है | कर्म में ऐसी संकरता ही वर्णसंकरता है | अन्य वर्णों में भी ऐसी ही वर्णसंकरता है | किन्तु अध्ययन-अध्यापन से जुड़े रहने के कारण ब्राह्मण का दायित्व समाज को दिशा दिखाना है | फलस्वरूप ब्राह्मण यह बहाना नहीं बना सकते कि सभी वर्णों में संकरता आयी है अतः उनका दोष सबके बराबर है | ब्राह्मणों का दोष बड़ा है क्योंकि वे शिक्षक थे, विराट पुरुष के सिर थे | अतः आज ब्राह्मणों को सबसे अधिक अपमानित होना पड़ रहा है जो उचित ही है | सच कटु भी हो तो स्वीकारना चाहिए, तभी सुधार होगा |
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वैदिक व्याकरण के अनुसार स्वर में परिवर्तन होने से अर्थ बदल जाते हैं, जैसे कि इन्द्रशत्रु में पूर्वपद प्रधान (उदात्त स्वर) हो तो इन्द्र का महत्त्व है, उत्तरपद प्रधान ओ तो शत्रु का महत्त्व है | अतः अर्थ दो प्रकार के बनेंगे, (1) इन्द्र जिसका शत्रु है उसका अन्य शत्रु = सूर्य, एवं (2) इन्द्र का शत्रु = वृतासुर ; स्वर न समझ पाने के कारण मन्त्र का गलत प्रयोग के कारण वृतासुर मारा गया ऐसी श्रुति है |
प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी यह परिघटना लक्षित होती है, यद्यपि पढ़ाई नहीं होती | एक उदाहरण है :–
पूर्वपद की प्रधानता के कारण बंगाल में ब्राह्मण पूजनीय रहे (मुख, वन्द, आदि) किन्तु अपना वेद पहले भूल गए और जमींदार बन गए (वर्णसंकर), किन्तु काशी और मिथिला के अधिकाँश ब्राह्मण उत्तरपद (“अध्याय) के प्राधान्य के कारण अपने “अध्याय” (वेद की अपनी शाखा) को बहुत बाद तक बचाकर रखने में सफल रहे और मुग़लों द्वारा ब्राह्मणों को भूमि देकर भ्रष्ट करने के बाद ही जमींदार बने |
मिथिला में खण्डवा से आये भील राज्य के पुरोहित महेश ठाकुर के वंश (दरभंगा राज) को अकबर द्वारा जागीरदार बनाने से मिथिला में ब्राह्मणों के जमींदार बनने का आरम्भ हुआ, किन्तु अगले दो-तीन सौ वर्षों के बाद ही इस वंश की इतनी शक्ति बढ़ी कि वह दुसरे ब्राह्मणों को भी अपने रास्ते पर लाने में सफल हुआ | यह एक उदाहरण है पूर्वपद और उत्तरपद की प्रधानता के कारण अर्थ में परिवर्तन का प्रभाव |
पश्चिम में कहीं-कहीं “सोशल साइकोलॉजी” और “लिंगविस्टिक साइकोलॉजी” की पढ़ाई भी होती है, किन्तु इतिहास, भाषाविज्ञान, सामाजिक मनोविज्ञान, आदि अनेक विषयों को समेटकर उपरोक्त तरीके से multi-disciplinary अध्ययन का भाषा में उपयोग कोई नहीं करता — रूचि और योग्यता ही नहीं है |
जबकि सच्चाई यह है कि संसार के हर विषय मूलतः भाषाई विषय हैं — शब्दों की परिभाषाएं और सहसम्बन्ध ठीक से समझ में आएं तो सारी समस्याएं हल हो जाएंगी — क्योंकि शब्द ब्रह्म है |
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वर्तमान पीढी अपने जीवनकाल में निम्नोक्त भविष्यवाणी का आरंभिक साक्ष्य देख लेगी :–
विपरीत खण्डकल्प (उत्सर्पिणी) आरम्भ हो चुका है | जो सुधरेंगे केवल वे ही बचेंगे, शेष को पृथ्वी त्यागना ही पडेगा | धीरे-धीरे पृथ्वी की जनसँख्या घटकर केवल 36 लाख 28 हज़ार 800 रह जायेगी | बारह शती के पश्चात पुनः विकास होगा, सनातन धर्म के शुद्ध नियमों के आधार पर ; सप्तर्षि स्वयं गोत्रों तथा वर्णों की व्यवस्था आरम्भ करेंगे | अन्य कोई सम्प्रदाय नहीं बचेगा | केवल वैदिक मार्ग बचेगा | किन्तु उस नये कालचक्र (अवसर्पिणी) के आरम्भ से ही वैदिक वाममार्ग का दुरुपयोग करने वाले भोगवादी भौतिकवादी असुर भी उत्पन्न होने लगेंगे | वे भी हिन्दू ही होंगे, किन्तु असुर, कंस या जरासंध की तरह , उनके मार्गदर्शक होंगे कौलमार्गी तान्त्रिक ब्राह्मण | संस्कृत एकमात्र भाषा रहेगी | 43,200 वर्षों के एक खण्डकल्प के अंतिम एक हज़ार वर्षों में भारत का पतन होगा, शेष काल में भारतीय संस्कृति का वर्चस्व रहेगा |
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इस्लाम मनुष्य के द्वारा आरम्भ किया गया | वर्ण-व्यवस्था किसी मनुष्य के द्वारा आरम्भ नहीं किया गया, यह सनातन धर्म की नींव है और गीता के अनुसार ईश्वर इसके संस्थापक हैं | ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद में “पुरुषसूक्त” है जिसके अनुसार विराट पुरुष के विभाग ही वर्ण बने, उसी विराट पुरुष को पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने सनातन “राष्ट्र” कहा (हिन्दू राष्ट्र) जो मनुष्यों के समूह से नहीं बनता बल्कि स्वयं एक जीवन्त प्राणी है और अनश्वर है ! हिन्दू राष्ट्र न तो कभी पैदा होता है और न कभी नष्ट होता है, सृष्टि के प्रकट होने पर यह प्रकट होता है और महाप्रलय होने पर सुषुप्ति में चला जाता है, अगले कल्प में पुनः प्रकट होने के लिए |
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महाभारत में अष्टावक्र का वचन है — ब्राह्मण में जो ज्ञानवान वह श्रेष्ठ, क्षत्रिय में बलवान श्रेष्ठ, वैश्यों में धनवान श्रेष्ठ, और शूद्रों में आयु में ज्येष्ठ होने वाला श्रेष्ठ।
प्राचीन युग में ब्राह्मण की श्रेष्ठता का निर्णय शास्त्रार्थ द्वारा ज्ञान के आधार पर होता था | सामंतवादी युग में जातीय आधार पर समाज बँटा और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता भी अनुवांशिक आधार पर होने लगा — पचास पुश्त पहले पूर्वज विद्वान थे अतः मैं श्रेष्ठ हूँ — भले ही भैंस चराते-चराते बुद्धि भैंस की हो गयी और कुत्तों के बीच रहने से संस्कार कुत्तों के !! ऊपर से नौकरी में “आरच्छन” भी चाहिए !!
जिनके मुख में वेद का वास था और श्रद्धा से लोग जिन्हें भूदेव कहते थे, जिनके मुख से निकली बात ब्रह्मवाक्य मानी जाती थी, आज उनके मुख से माँ-बहन की गालियाँ निकलती हैं !!
“एकरूपता टूटी” — इसका गोत्र से कोई सम्बन्ध नहीं है, यह सामंतवादी युग में क्षेत्रीय आधार पर ब्राह्मणों के विभाजन का उल्लेख है, जब ब्राह्मण भूमि से बंध गए।
गोत्र सात ही थे, उनके ही विभाजन से अन्य गोत्र बाद में बने | ऋषि कभी नहीं मरते, अतः गोत्र का प्रभाव डीएनए और संस्कार से कभी नष्ट नहीं होता, यही कारण है कि समगोत्री विवाह वर्जित था | किन्तु नेहरू और अम्बेडकर ने समगोत्री विवाह को कानूनन मान्यता दे दी क्योंकि नास्तिकों को ऋषियों का महत्त्व पता नहीं रहता | गोत्र जन्मना है, उपाधियां कर्म पर हैं।
साभार – विनय झा
गुरूवर के चरणों मे नमन