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आईये जानते हैं महाभारत के बारे में कुछ अज्ञात तथ्य….

महाभारत के बारे में कुछ अज्ञात तथ्य –  महाभारत हमारे सनातन धर्म का प्रमुख ग्रंथ है, यह विश्व का सबसे बड़ा साहित्य ग्रंथ है।  इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग 1,10,000 श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं।

आज हम महाभारत के कुछ अज्ञात तथ्यों के बारे में आपको बतायेंगे जिनपर शायद ही आपका कभी ध्यान गया होगा और शायद ही इन्हें टीवी सीरियल पर कभी दिखाया गया होगा।

महाभारत के बारे में कई तथ्य ऐसे हैं जो कम से कम साधारण लोगों को अज्ञात हैं और जिन लोगों को ज्ञात है वे भी इनकी अधिक चर्चा नहीं करते। मैं ऐसे कुछ तथ्यों का उल्लेख कर रहा हूँ जिनकी वेदव्यास रचित महाभारत के प्रामाणिक संस्करणों के अनुसार निर्विवाद रूप से सत्यता है पर जनता में जिनका ज्ञान बहुत कम है।

भीष्म नहीं थे सबसे वृद्ध व्यक्ति!

1- भीष्म पितामह अपने समय में हस्तिनापुर के राजवंश के सबसे वयोवृद्ध व्यक्ति नहीं थे न ही महाभारत के युद्ध में इस वंश के सबसे वयोवृद्ध योद्धा ही थे। इस राजवंश के सबसे वयोवृद्ध व्यक्ति महाराज शान्तनु के बड़े भाई बाह्लीक थे जो अपने पुत्र सोमदत्त और पौत्रों भूरि, भूरिश्रवा और शल के साथ धृतराष्ट्र की राजसभा में उपस्थित रहते थे और जो महाभारत के युद्ध के चौदहवें दिन अपने परपोते भीमसेन के हाथों मारे गये।

युद्ध के समय अर्जुन की उम्र 89 वर्ष थी

2- महाभारत के समय लोगों की आयु आजकल के लोगों की आयु की अपेक्षा लम्बी होती थी और अधिक उम्र में भी उनका स्वास्थ्य अच्छा रहता था। हमारे पास अर्जुन का उदाहरण है जो महाभारत युद्ध के समय कम से कम नवासी वर्ष के थे। (इसलिए कि वे भगवान कृष्ण के समवयस्क थे जिनकी कुल आयु एक सौ पचीस वर्ष थी और उनकी मृत्यु महायुद्ध के छत्तीस वर्ष बाद हुई थी।) इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि विराटनगर के युद्ध के ठीक पहले अर्जुन अपने दिव्यास्त्रों का वर्णन करते हुए बताते हैं कि पिछले पैंसठ साल से गाण्डीव मेरे पास है। सोचने की बात है कि दस साल की आयु में हस्तिनापुर आने के बाद कुछ काल बालक्रीडाओं में बिताने,पहले कृपाचार्य और फिर द्रोणाचार्य के यहाँ अस्त्र विद्या की शिक्षा लेने(यह लगता है कि दिव्यास्त्रों के प्रयोग में तमाम जटिलताएँ थीं और उनको ढंग से सीखने में कई साल लग सकते थे।) पुनः कुछ दिन हस्तिनापुर में रहने और लाक्षागृह काण्ड के बाद भटकने, इसके बाद कुछ दिन तक इन्द्रप्रस्थ में निवास करके बारह वर्ष का वनवास लेने और उसके बाद अग्निदेव से गाण्डीव प्राप्त करने की घटनाओं के बीतने में अर्जुन के जीवन का कितना समय बीत गया होगा। इन घटनाओं को देखते हुए यह लगता है कि गाण्डीव प्राप्त होने के समय अर्जुन की आयु तीस से भी अधिक ही रही होगी। अतः अर्जुन की आयू विराटनगर के युद्ध के समय पञ्चानबे साल से भी अधिक की रही होगी।

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इसी प्रकार यह भी तथ्य विचार में लिया जा सकता है कि भगवान कृष्ण के जन्म के काफी समय पहले ही कंस अपने पिता महाराज उग्रसेन को हटाकर गद्दी पर बैठ गया था। इसका यह अर्थ है कि उग्रसेन कृष्ण से कम से कम पचास वर्ष बड़े रहे होगें। सत्य यह है कि उग्रसेन कृष्ण के पूरे जीवनकाल तक राजा रहे। उनकी आयु अन्तिम समय एक सौ पचहत्तर साल से कम न रही होगी। इसी प्रकार द्रोणाचार्य की आयु दो स्थानों पर चार सौ वर्ष बतायी गयी है। (कुछ लोग सम्बन्धित शब्दों का अर्थ पचासी वर्ष लेते हैं पर इस आयु की महाभारत के अन्य वर्णनों जैसे अर्जुन की आयु से सङ्गति नहीं बैठती।) भीष्म व बाह्लीक की आयु की कल्पना ही की जा सकती है।

5 हजार वर्ष प्राचीन टेस्ट ट्यूब बेबी टेक्नोलाजी

3- महाभारत के समय की तकनीक कई मामलों में बहुत विकसित थी। हम उस समय की टेस्ट ट्यूब बेबी टेक्नोलाजी का प्रसंग ले सकते हैं जिसके द्वारा गान्धारी के गर्भ से निकले मांस पिण्ड से एक सौ एक शिशुओं की उत्पत्ति व्यास के प्रयोग द्वारा की गयी थी। (यह इस टेक्नोलॉजी के प्रयोग का पहला अवसर नहीं था। राजा सगर के इस प्रकार से साठ हजार पुत्र हुए थे। सावित्री द्वारा यमराज से सौ पुत्र और अपने निःसन्तान मातापिता के लिए सौ पुत्र माँगने से लगता है कि इस तकनीक का उपयोग पहले कभी सामान्य रहा होगा।) उस समय दिव्यास्त्रों और विमानों के वर्णन से भी उस समय तकनीक के विकास का प्रमाण मिलता है। (यह वर्णन आया है कि सौभपति शाल्व के पास एक विमान था जिस पर सवार होकर वह द्वारिका पर हमला करने आया था। दिव्यास्त्रों से तो महाभारत पढ़नेवाले परिचित हैं ही।)

सञ्जय के पास थी अलौकिक दृष्टि

4- लोकप्रचलित विश्वास के अनुसार सञ्जय ने धृतराष्ट्र को युद्ध का आँखों देखा हाल सुनाया था। पर सच यह है कि सञ्जय महाभारत के युद्ध में लड़ने गये थे और बीच बीच में भीष्म आदि सेनापतियों के मारे जाने पर वे धृतराष्ट्र के पास आकर उन्हें युद्ध का हाल बताते थे। यह लगता है कि युद्ध का हाल बताने के दौरान ही उनकी बुद्धि में अलौकिक ज्ञान आ जाता था जिससे वे युद्ध की हर गतिविधि को बताने में समर्थ हो जाते थे। युद्ध के अन्त में धृष्टद्युम्न और सात्यकि ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था और उन्हें मारने जा रहे थे तभी व्यास ने आकर उन्हें छुड़ाया। दुर्योधन की मृत्यु के बाद ही सञ्जय की यह अद्भुत ज्ञान की शक्ति समाप्त हुई

भीम के पुत्र घटोत्कच का रहस्य

5- यह एक मिथक है कि युद्ध के चौदहवें दिन की रात में अचानक ही घटोत्कच आया और उसने अपने शिविर में सोते हुए कौरवों पर हमला कर दिया जिसके कारण कर्ण को उस पर इन्द्रशक्ति छोड़नी पड़ी। (दुर्भाग्य से अधिकतर सीरियलों में यही दिखाया जाता है।) सच यह है कि जयद्रथ की मृत्यु के बाद दुर्योधन ने क्रुद्ध होकर द्रोणाचार्य को इसके लिए उपालम्भ दिया तो आहत होकर द्रोणाचार्य ने प्रतिज्ञा कर ली कि वे अब कवच नहीं उतारेगें और युद्ध तब तक अनवरत चलता रहेगा जब तक या तो उनकी मृत्यु नहीं होगी या उनके शत्रुओं का पराभव नहीं होगा। अतः उस दिन रात में युद्ध बन्द नहीं हुआ। उस रात द्रोणाचार्य और कर्ण ने बड़ा भयङ्कर युद्ध किया तो कर्ण के मुकाबले के लिए घटोत्कच और द्रोणाचार्य के मुकाबले के लिए धृष्टद्युम्न को लगाया गया था। घटोत्कच ने उस युद्ध में कर्ण और कौरव सेना को इस प्रकार त्रस्त कर दिया कि अन्त में कर्ण को शक्ति उसी पर छोड़नी पड़ी। यह भी कहना गलत है कि घटोत्कच उसी दिन युद्ध में आया था। वह पहले दिन से ही युद्ध में था। यह था कि महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उसको उसी दिन दी गयी थी।

उस समय युद्ध में कम हिंसा होती थी

6- यह छवि बनती है कि महाभारत के समय लोग बड़े हिंसात्मक थे और बात बात पर युद्ध लड़ते थे। यह सच है कि उस समय के लोग युद्ध प्रेमी थे पर लोग अनावश्यक हिंसा से बचने का प्रयत्न करते थे और उन पर हिंसाप्रेम का दोष नहीं लगाया जा सकता। अर्जुन ने दिग्विजय के दौरान बहुत से राजाओं को हराया पर इस दौरान उन्होंने किसी राजा के प्राण नहीं लिए। लगभग यही हाल भीम, नकुल, सहदेव की दिग्विजय के दौरान भी था। यह प्रतीत होता है कि उस समय के योद्धा मुख्य रूप से एक दूसरे का बलाबल नापने के लिए ही युद्ध करते थे और यदि सामनेवाला योद्धा अधिक पराक्रमी सिद्ध होता था तो वे उसकी न्यायसंगत बात को मान लेते थे। भगदत्त का उदाहरण सामने है जिन्होंने आठ दिन तक अर्जुन से युद्ध किया और अन्त में वे अर्जुन की योद्धा के रूप में श्रेष्ठता स्वीकार करके युधिष्ठिर को इच्छित कर देने को तैयार हो गये। यह लगता है कि जब तक मरने मारने का निश्चय करके राजा लोग युद्ध में न उतरें तब तक वे विपक्षी के वध से बचने का प्रयास करते थे। महाभारत के मुख्य युद्ध से पहले हुए तमाम युद्धों में हम यही देखते हैं कि शत्रुओं को पराजित करके या अपमानित करके छोड़ दिया जाता था चाहे वह गुरुदक्षिणा के लिए द्रुपद से हुआ युद्ध हो, जयद्रथ द्वारा द्रोपदी के अपहरण के कारण हुआ युद्ध हो या विराटनगर का युद्ध हो अथवा और कोई युद्ध हो। महाभारत के युद्ध में यह नहीं होना था और इसलिए इसे टालने का भरसक प्रयास दोनों पक्षों की ओर से किया जाता रहा जो सफल नहीं हुआ।

युद्ध के अलाबा महाभारत सिखाता है जीवन दर्शन

7- यह एक भ्रम है कि महाभारत युद्ध और राजनीति का ही ग्रन्थ है। धर्म और अध्यात्म से सम्बन्धित जो जानकारी इसमें दी गयी है वैसी किसी और ग्रन्थ में नहीं दी गयी है। मेरे विचार से महाभारत के शान्तिपर्व जैसी बात संसार के किसी ग्रन्थ में नहीं है। इसमें वह सब कुछ है जो जीवन में शान्ति देनेवाला है और सम्भवतः मृत्यु के बाद भी। पूरे ग्रन्थ को पढ़ने से स्पष्ट लग जाता है कि उस समय समाज में दो प्रकार की जीवनपद्धतियाँ विद्यमान थीं। एक ऋषियों की थी जो वन में रहते, चिन्तनमनन करते और तपस्या करके सर्वोत्तम श्रेय को पाने का प्रयत्न करते। ब्राह्मण उन्हें अपना आदर्श मानते थे। दूसरी क्षत्रियों की थी जो शासन करते, युद्ध करते और धर्मपालन के द्वारा यश प्राप्त करने का और यज्ञों के द्वारा पुण्य सञ्चय का प्रयास करते। महाभारत में ऋषियो की जीवनचर्या को उत्कृष्ट मानते हुए भी क्षत्रियों व अन्य लोगों के स्वधर्मपालन पर ही अधिक जोर दिया गया है। इन बातों की विस्तृत व्याख्या शान्तिपर्व में की गयी है।

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साभार – क्योरा(Ajaya Rachanekar)

Pallavi Sharma

पल्लवी शर्मा एक छोटी लेखक हैं जो अंतरिक्ष विज्ञान, सनातन संस्कृति, धर्म, भारत और भी हिन्दी के अनेक विषयों पर लिखतीं हैं। इन्हें अंतरिक्ष विज्ञान और वेदों से बहुत लगाव है।

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